सद्गुरु भक्ति क्या है ?
करता भी सद्गुरु, कारण भी सद्गुरु
जीवन भी सद्गुरु, आनंद भी सद्गुरु ।
भक्ति भाव जब सघन होता है तो एक इंसान सृजनात्मक हो जाता है । किसी ना किसी रूप में वह प्रकट होने लगती है। मोना को स्मरण आता है कि जबभी उसका हाथ कैनवास पर गया तो उससे ईश्वर और प्रकति ही बने । कभी गणेश, सरस्वती तो कभी दुर्गा तो कभी प्रकति के ऊँचे ऊँचे पहाड़, नदियाँ, पेड़ और कभी भगवान की सबसे पवित्र रचना नारी।
भक्ति बोलती नहीं--गाती है।
भक्ति बोलती नहीं--नृत्य करती है।
भक्ति बोलती नही - लिखती है।
भक्ति बोलती नही - कैनवास पर रंग भरती है।
भक्ति का संबंध तर्क व विचार से नहीं अपितु हृदय और प्रेम से है। भक्ति का संबंध कुछ कहने से कम, कहने के भाव से है। बिना बोले ही भाव को समझ लेना भक्ति है। सद्गुरु आपकी खुशी रूपी नदी को परमात्मा प्रेम रूपी सागर से मिला देते हैं।
मोना की प्रसन्नता का कारण उसके प्रभु है। उसके मुख पर जो मुस्कान है वो उसके प्रभु ही है।
आनंद है महादेव मेरे
जीवन है बस उनके नाम
क्षण-क्षण निकल रहा
लेकर महादेव का नाम
सदगुरु कोई जड़ वस्तु नहीं है--चैतन्य का प्रवाह है; ठहरा हुआ नहीं है--गत्यात्मक है, गतिमान है।
एक सूफी फकीर एक वृक्ष के नीचे बैठा था, एक युवक ने आकर पूछा कि "मैं सदगुरु की खोज में हूँ, मुझे कुछ संकेत दें कि मैं सदगुरु को कैसे पहचानूँ?' तो उस फकीर ने उसे संकेत दिया कि ऐस-ऐसे वृक्ष के नीचे अगर बैठा हुआ मिल जाए, तो समझना...।
वह युवक गया। उसने बहुत खोजा; कहते हैं, तीस साल...। लेकिन वैसा वृक्ष कहीं न मिला, और न वृक्ष के नीचे बैठा हुआ कोई सदगुरु मिला। कसौटी पूरी न हुई। बहुत लोग मिले लेकिन कसौटी पूरी न हुई, वह वापस लौट आया। जब वह वापस आया तो वह हैरान हुआ कि यह तो बूढ़ा उसी वृक्ष के नीचे बैठा था। इसने कहा कि महानुभाव, पहले ही क्यों न बता दिया कि यही वह वृक्ष है। उसने कहा, "मैंने तो बताया था, तुम्हारे पास देखने की दृष्टि न थी। तुमने वृक्ष देखा ही नहीं। मैं तब व्याख्या ही कर रहा था वृक्ष की, तब तुम सुने और भागे। यही वृक्ष है, और मैं वही व्यक्ति हूँ और तुम्हारी झंझट तो ठीक, मेरी झंझट सोचो कि तीस साल मुझे बैठा रहना पड़ा, कि तुम एक न एक दिन आओगे। महापुरुषों का संग दुर्लभ है माना, मगर निराश मत होना। दुर्लभ इसलिए सूत्र कह रहा है ताकि खोजने में जल्दी मत करना, धीरज रखना। और कोई मतलब नहीं है दुर्लभ का। दुर्लभ का यह मतलब नहीं है कि मिलेगा ही नहीं। मिलेगा, धीरज रखना। धैर्य से खोजने से परमात्मा रूपी सद्गुरु मिल ही जाते है। बात प्यास की है।सदगुरु परमात्मा ही है। इसलिए सूत्र कहता है: "वह भी उसकी ही कृपा से मिलता है'।वह आता है अपने ही कारण। तुम जब भी तैयार हो जोते हो, तभी आ जाता है। ठीक से समझो तो ऐसा कहना चाहिए कि आता तो पहले भी रहा था, तुम पहचान न पाए। तुम जब सम्हले तो तुमने पहचाना; आता तो पहले भी रहा था; बुलाता तो पहले भी रहा था; तुमने न सुना, तुम्हारे कान तैयार न थे, तुम कुछ और सुनने में लगे थे। सद्गुरु जब अपनी उंगली पकड़ने के लिए बोलते हैं तो दे दो उनको। किन्हीं हाथों पर तो भरोसा करो और हाथ हाथ में दे दो। ऐसे ही तुम परमात्मा के हाथ में अपने को सौंप पाओगे। और ऐसे ही परमात्मा तुम्हारे हाथ को अपने हाथ में ले पाएगा।
सदगुरु तो दर्पण है--उसमें तुम्हें अपना चेहरा धीरे-धीरे दिखाई पड़ने लगेगा; भूली-बिसरी याद आ जाएगी।
मोना इतना ही कहती है अपने गुरु से
दर्पण है सद्गुरु
वो मेरे दर्पण, मैं उनकी
जब नूर दिखे उनके चहेरे पर
ऐसा लगे वो मेरे, मैं उनकी ।
परमात्मा और तुम्हारे बीच की दूरी कम हो जाए, इसमें सद्गुरु आपकी सहायता करते है। सद्गुरु के मार्गदर्शन में दूरी कम होती चली जाती है और तो भक्ति सघन होती जाती है। एक दिन पूरी मिट जाती है, अनन्यता हो जाती है, तो भक्त भगवान हो जाता है, भगवान भक्त हो जाता है। तब "दूरी" नहीं रह जाती। तब दोनों किनारे खो जाते हैं एक में ही ।