प्रभु प्रेम द्वार है परमात्मा का, ज्ञान नहीं
ज्ञानी परमात्मा को नहीं जान पाता, प्रेमी जानता है।
मोना महादेव भक्ति मे जब रमी तो उसने जाना कि वो अज्ञानी हो गई। भक्ति से प्रेम का जन्म हो गया।। प्रेमी का अर्थ है : जो अपने को कुर्बान करने को तत्पर है। प्रेमी का अर्थ है : जो झुकने को, समर्पित होने को राजी है। प्रेमी के पास पांडित्य नहीं होता—जैसे कबीर को, या कि जैसे मीरा को। पंडित तो जरा भी नहीं थे ये संत। शास्त्र का तो कुछ बोध ही नहीं था। कबीर ने तो कहा है—मसि कागद छूयो नहीं। स्याही और कागज तो कभी छुआ ही नहीं। लेकिन कबीर ने कहा है—ढाई आंखर प्रेम के, पढै सो पंडित होय। वे जो ढाई अक्षर प्रेम के हैं, वे जरूर पढ़े। बस उन्हीं को पढ़ लिया तो सब पढ़ लिया। उन ढाई अक्षरों में सब अक्षर आ गये।
ज्ञान आभूषण है अहंकार का। ज्ञान से भक्ति का क्षय हो जाता है। जितना आदमी जानकार होगा, उतना ही कम प्रेम हो जाएगा। जानना प्रेम की हत्या करता है। जानना जहर है प्रेम के लिए। क्योंकि प्रेम के लिए रहस्य चाहिए, प्रेम के लिए विस्मय—विमुग्धता चाहिए और ज्ञान तो रहस्य को छीन लेता है।दुनिया मे जितनी शिक्षा बढ़ती जाती है, उतना प्रेम कम होता जाता है। शिक्षित आदमी और प्रेमी, जरा मुश्किल जोड़ है! जितना शिक्षित, उतना ही कम प्रेमी। थोड़ा अशिक्षित होना चाहिए प्रेम के लिए। ग्रामीण के पास प्रेम है, शहरी के पास विदा हो गया। असभ्य के पास प्रेम है, सभ्य के पास नहीं। जो जितना सुसंस्कृत हो गया है, उसके पास औपचारिकता है, लेकिन औपचारिकता में कहीं कोई प्राण नहीं, कहीं कोई जीवन नहीं। एक बच्चे जब जन्म लेता है, हर चीज़ उसके लिए विस्मय से भरी होती है, धीरे—धीरे हम ज्ञान ठूस देते है, हर चीज समझा देते है । फिर एक दिन धीरे— धीरे जब वह विश्वविद्यालय से वापिस लौटेगा ज्ञानी होकर—सब गंवाकर और कोरे कागज साथ लेकर, सर्टिफिकेट लेकर—तब उसे कोई चीज विस्मय—विमुग्ध न करेगी। हर चीज का उत्तर उसके पास होगा। तुम पूछो—वृक्ष हरे क्यो है? वह कहेगा—क्लोरोफिल। बात खतम हो गयी। स्त्री सुंदर क्यो लगती है? हारमोन। बात खतम हो गयी। प्रेम क्या है? रसायनशास्त्र। वह समझा सकेगा सब। वह सब समझकर आ गया है। वह हर चीज को जानता है। अब अनजाना कुछ छूटा नहीं है, प्रीति कैसे उमगे! आश्चर्य ही मर गया। आश्चर्य की हवा में प्रीति उमगती है।इसलिए तुम जानकर आश्चर्य चकित मत होना कि जैसे—जैसे आदमी का ज्ञान बढ़ा है वैसे—वैसे दुनिया मे प्रेम कम हो गया।
जब इंसान परमात्मा से ध्यान, भक्ति से थोड़ा सा जुड़ता है, तब उसे पता चलता है कि जो जाना सब कचरा था। वह तो सब झूठ था वह तो सब व्यर्थ था। मोना परभु को बोलती है हमेशा, "परभु आप हीरा हो हीरा"। मोना ने जो उसने कंकड़—पत्थर बीन रखे थे , फेंक दिए सारे । जो उसने शास्त्रों का उच्छिष्ट इकट्ठा कर लिया था, अब मन नही होता कि कुछ और पढ़ने का। अब तो अपने ही शास्त्र का जन्म हो गया है। अब तो उपनिषद अपने भीतर ही उतर रहा है। एक अपनी ही कोई गीता और उसके श्लोक गर्भ में आ गए है और धीरे धीरे स्वयं के श्लोकों की संख्या बढती जा रही है। मोना ने महसूस किया कि जैसे जैसे उसका परभु प्रेम बड़ा, रोज ओंकार नए रूपों में प्रकट हुआ । बढ़ो! ज्ञान से नहीं, कर्म से नहीं—प्रेम से!