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"चलो बुलावा आया है, माता ने बुलाया है"
मोना ने महादेव के प्रेम में ये महसूस किया कि रूप, रंग, शब्दो से परे होता है दिव्य प्रेम ।
प्रभु की कॉल का मतलब बोला जाता हैं कि भगवान ने अपने पास बुला लिया है, जैसे लोग तीर्थ यात्रायें करते हैं, जिसने जहाँ की मान्यता मानी हो, जाते है, बहुत सुकून दायक भाव के साथ यात्रायें होती है। वो कॉल हमेशा के लिए भी हो सकती है जैसे मीरा ।
"ऐसी लागी लगन मीरा हो गई मगन, वो तो हरि गुन गाने लगी।" मीरा को कृष्ण की आँखों में रस है, उनके शब्दों में नही। मीरा को कृष्ण के रूप में रस है, उनके सिद्धांतो में नही। मीरा को कृष्ण में रस है; क्या कहते है, इसमें नही।
प्रेम शरीर के तल पर नहीं, चेतना के तल पर घटने वाली घटना है।
शरीर के तल पर जब प्रेम को हम घटाने की कोशिश करते हैं, तो प्रेम आब्जेक्टिव हो जाता है। कोई पात्र होता है प्रेम का, उसकी तरफ हम प्रेम को बहाने की कोशिश करते हैं। वहाँ से प्रेम वापस लौट आता है, क्योंकि पात्र शरीर होता है, जो दिखायी पड़ता है, जो स्पर्श में आता है।
लेकिन प्रेम को अगर आत्मिक घटना बनानी है, अगर प्रेम की चेतना बनाना है, चेतना बनाना है तो प्रेम आब्जेक्टिव नहीं रह जाता, सब्जेक्टिव हो जाता है। तब प्रेम एक संबंध नहीं, चित्त की एक दशा है, स्टेट आफ माइंड है।
बुद्ध एक सुबह बैठे हैं और एक आदमी आ गया है। वह बहुत क्रोध में है। उसने बुद्ध को बहुत गालियाँ दी और फिर इतने क्रोध से भर गया है कि उसने बुद्ध के मुँह के ऊपर थूक दिया। बुद्ध ने चादर से वह थूक पोंछ लिया और उस व्यक्ति से कहा, "मित्र, कुछ और कहना है?"
भिक्षु आनंद बुद्ध के पास बैठा, वह क्रोध से भर गया और आश्चर्यचकित हो गया है। उसने कहा, "आप क्या कहते हैं? यह आदमी आप पर थूक रहा है और आप पूछते हैं, कुछ और कहना है!'
बुद्ध ने कहा, "मैं समझ रहा हूँ, ऐसा प्रतीत होता है कि उस व्यक्ति पर क्रोध इतना भारी हो गया है, कि शब्द कहने में असमर्थ ज्ञात होते होंगे, इसलिए उसने मुझपर थूककर कोई बात कही । मैं समझ गया हूँ, उसने कुछ कहा है। अब मैं पूछता हूँ, और कुछ कहना है?"
वह आदमी उठा और लौट गया। अपने इस कृत्य पर वह पछताता है, रात्रि में उसे नींद भी न आई। अगले ही दिन प्रातःकाल वह बुद्ध से क्षमा याचना करने के लिए आया। बुद्ध के चरणों में उसने सिर रख दिया और जैसे ही उसने अपने सिर उठाया, बुद्ध ने कहा, "और कुछ कहना है?"
वह आदमी कहने लगा, "कल भी आप यही रहे थे!" बुद्ध ने कहा, "आज भी वही कहता हूँ। शायद कुछ कहना चाहते हो। शब्द कहने में असमर्थ थे, इसलिए सिर पैरों पर रखकर कह दिया है। कल थूक कर कहा था। पूछता हूँ, कुछ और कहना है?"
वह आदमी बोला, "कुछ और नहीं, बस आप से क्षमा माँगने आया हूँ। स्वयं द्वारा किये कृत्य के कारण मैं रात्रि में सो भी न सका, आज तक मुझे आपका प्रेम मिला, कल मेरे द्वारा किये गए कृत्य के कारण अब शायद वह प्रेम मुझे नहीं मिल सकेगा।" यह सुनकर बुद्ध हँसने लगे और उन्होंने कहा, "सुनते हो आनंद, यह आदमी कैसी पागलपन की बातें कहता है! यह कहता है कि कल तक मुझे आपका प्रेम मिला और कल मैंने थूक दिया तो अब प्रेम नहीं मिलेगा! तो शायद यह सोचता है कि यह मेरे ऊपर नहीं थूकता था, इसलिए मैं इसे प्रेम करता था, जो थूकने से प्रेम बंद हो जायेगा! पागल है तू! मैं प्रेम इसलिए करता हूँ कि मैं प्रेम ही कर सकता हूँ और कुछ नहीं कर सकता हूँ। तू थूके, तू गाली दे, तू पैरों पर सिर रखे, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता । मैं प्रेम ही कर सकता हूँ। मेरे भीतर प्रेम का दीया जल गया। अब मेरे पास से जो भी निकले, उस पर प्रेम पड़ेगा। कोई न निकले तो एकांत में प्रेम का दीया जलता रहेगा। अब इसका किसी से कोई संबंध न रहा। अब यह कोई संबंध न रहा, यह मेरा स्वभाव हो गया है। प्रेम अकारण है, तब प्रेम इससे-उससे नहीं है, तब प्रेम है। कोई भी हो तो प्रेम के दीये का प्रकाश उस पर पड़ेगा। आदमी हो तो आदमी, वृक्ष हो तो वृक्ष, सागर हो तो सागर, चंद्रमा हो तो चंद्रमा, कोई न हो तो फिर एकांत में प्रेम का दीया जलता रहेगा।
अभी हम सब बाहर से खींचे गये प्रेम पर जी रहे हैं, इसलिए वह प्रेम कलह बन जाता है, पति-पत्नी को ही देख लीजिए, कभी तो आपस मे देखना भी पसंद नहीं करेगें। जो भी चीज जबरदस्ती खींची गयी है, वह दुख और पीड़ा बन जाती है। जो भीतर से स्पॉनटेनियस, सहज प्रकट हुई है, वह बात और हो जाती है। वह बात ही और हो जाती है। तब जीवन बहुत प्रेमपूर्ण होगा, लेकिन प्रेम एक संबंध नहीं होगा।
साधक को स्मरण रखना है कि ध्यान साधना के द्वारा अपने अन्दर प्रेम को अनुभव करे, प्रेम उसकी चित्त दशा बने तो ही प्रभु के मार्ग पर, सत्य के मार्ग पर यात्रा की जा सकती है, तभी उसके मंदिर तक पहुँचा जा सकता है, जहाँ से प्रभु की कॉल आई।
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