दिव्य प्रेम संसारी प्रेम से भिन्न है
दिव्य प्रेम वही प्रेम है जो राधा ने कृष्ण से किया, जो मीरा ने चाहा और अंत मे उसी कृष्णा मे समा गई। जो मोना महादेव के लिये महसूस करती हैं । एक भजन के अनुसार "कौन कहता है भगवान नृत्य नहीं, तुमने गोपियों जैसे नृत्य नहीं किये।" दिव्य प्रेम स्वार्थ रहित होता है जिसमें सिर्फ देना ही होता है।
एक बार श्री कृष्ण ने सिर में असहनीय पीड़ा का अभिनय किया। वे दर्द से कराहने और तड़पने लगे। कई उपचार के बाद भी आराम नहीं मिला। तभी वहाँ नारद जी पहुँच गए तथा दर्द की औषधि कहाँ मिलेगी इसकी जानकारी श्रीकृष्ण से ही प्राप्त की । श्री कृष्ण ने कहा कि जो मुझे अत्यधिक प्रेम करता हो उसकी चरण धूलि ही इसकी औषधि है । मैं उसे सिर पर लगा लूँगा तो दर्द का निवारण होगा। नारद जी सभी रानियों से चरण धूलि माँगी परन्तु सबने नरक के भय से अपने पति को चरण धूलि देने से मना कर दिया। संत शिरोमणि नारद जी ने भी चरण धूलि नहीं दी ।
नारद जी प्रभु के सभी लोकों में सभी भक्तों के पास गए परंतु सभी ने यह कहते हुए मना कर दिया कि हम अपना प्राण उनको दे सकते हैं परंतु उनके सर पर लगाने के लिए चरण धूलि कदापि नहीं दे सकते। अंततः श्रीकृष्ण ने उनको ब्रज में गोपियों के पास जाने की सलाह दी ।
नारद जी गोपियों के पास गए और सारा वृतांत सुनाया । सुनते ही गोपियों ने सारी गोपियों ने अपने चरण फैला दिये और बोलीं, "नारद जी! एक क्षण भी नष्ट मत करिये। जल्दी से हमारी चरण धूलि लेकर जाइये"। नारद जी आश्चर्यचकित थे। उन्होंने गोपियों से पूछा कि तुम जानती नहीं श्री कृष्ण कौन हैं और उनको सिर पर लगाने के लिए चरण धूलि देने का परिणाम क्या होगा ? गोपियों ने कहा, "नारद जी यह प्रश्न आप बाद में पूछियेगा अभी आप तुरंत जाइये और हम सब के प्रियतम की पीड़ा का निवारण कीजिये। आप यही कहना चाहते हैं कि वे भगवान हैं और उन्हें चरण धूलि देने से हमें नरक की प्राप्ति होगी। यदि अपने प्रेमास्पद के सुख के लिये हमें नरक की यातनायें भोगनी पड़े तो हम भोग लेंगे लेकिन प्रियतम तो स्वस्थ हो जायेंगे"।
नारद जी गोपी प्रेम का प्रत्यक्ष प्रमाण पाकर नतमस्तक हो गये। गोपियाँ इतनी निष्काम हैं !! लोग नरक की यातनाओं से डरते हैं, परंतु गोपियाँ तो श्रीकृष्ण के सुख के लिए नरक स्वीकार करने को तत्पर हैं। नारद जी ने पहले उनकी चरण रज अपने माथे पर लगाई फिर द्वारिका पहुँचे। जब रानियों ने गोपियों के निष्काम प्रेम की कथा सुनी तब उन्हें गोपियों के प्रति श्री कृष्ण के असीम अनुराग का रहस्य ज्ञात हुआ।
संसार में जीव स्वार्थ से ही प्रेम करता है। वह है सन्सारी प्रेम। काम का उद्देश्य इन्द्रीय सुख है। काम से इंद्रियों की क्षणिक तृप्ति होती है और अंतिम परिणाम दुख ही होता। काम सीमित मात्रा का होता है और सीमित काल के लिये होता है उस के बाद समाप्त हो जाता है। काम की पराकाष्ठा आत्म तृप्ति है। हम सुख प्राप्त करने के उद्देश्य से संसारी व्यक्तियों एवं वस्तुओं से राग करते हैं। जब हमें वहाँ सुख नहीं प्राप्त होता तो हम दुखी होते हैं। उस दुख को हम क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष, लोभ, अहंकार आदि के रूप में व्यक्त करते हैं जिससे दुख और बढ़ जाता है।
अतः काम और प्रेम में बहुत बड़ा अंतर है। काम घोर अंधकार है तथा प्रेम निर्मल प्रकाश है। जबकि दिव्य प्रेम का उद्देश्य ईश्वर का सुख। ऐसा प्रेम वियोग होने पर भी दिन दूना रात चौगुना बढ़ता जाता है और कभी समाप्त नहीं होता ।
भक्त श्री ईश्वर प्रेम में समस्त सामाजिक व वैदिक बंधन, भौतिक सुखों, शिष्टाचार, धैर्य, स्वसुख का त्याग कर भगवान भजन, भगवान की वाणी, में निमज्जित रहता है।