सोलह कलाएँ
मोना ने करवाचौथ का व्रत नियमानुसार किया। वास्तव में उपवास आपके शरीर को डिटॉक्स करता है जिसका उद्देश्य अनिर्दिष्ट "विषाक्त पदार्थों" के शरीर से छुटकारा पाना है ।
मोना ने मन में महादेव की भक्ति और प्रेम को समेटे हुए सोलह श्रृंगार किया। उसने मेंहदी में भी महादेव व ॐ लिखकर हाथों में लगाई।
आजकल के युग के अनुसार व्हाट्सअप स्टेटस पर लगाया, उसकी बच्चों की एकेडमी बच्चों की माँ बोलने लगी कि ये तो हमने पहले नहीं देखा, टैटू तो देखे है, पर मेंहदी से नही।
संत मीरा ने विधवा होने पर भी शृंगार नहीं त्यागा, वह तो अपने आत्मापति श्री कृष्ण के लिए शृंगार करती थीं। मीरा जी ठाकुर द्वारे में जाकर भगवान श्री कृष्ण के सम्मुख लोक लाज और मिथ्या आडम्बरों से दूर हो पैरों में घुंघरु बाँधकर ताल बजा-बजाकर नृत्य करती हुई निज भावों को गातीं :
पग घुंघरू बाँध मीरा नाची रे। लोग कहै मीरां भई रे बावरी, सास कहै कुलनासी रे।।
16 श्रृंगार। सर्द पूणिमा का चाँद को ऐसा माना गया ही कि वो 16 कला संपन्न होता है। आखिर ये 16 कलाएँ क्या हैं?
उपनिषदों के अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्वर तुल्य होता है।
जो व्यक्ति मन और मस्तिष्क से अलग रह कर बोध करने लगता है वही 16 कलाओं में गति कर सकता है।
चंद्रमा की सोलह कलाएँ-अमृत, मनदा, पुष्प, पुष्टि, तुष्टि, ध्रुति, शाशनी, चंद्रिका, कांति, ज्योत्सना, श्री प्रीति, अंगदा, पूर्ण और पूर्णामृत हैं।
भगवान कृष्ण एक बच्चे के रूप में, एक मित्र के रूप में, एक सच्चे प्रेमी के रूप में, एक शिक्षक के रूप में और एक मार्गदर्शक के रूप में, सभी स्थितियों में बहुत ही शुद्ध और परिपूर्ण 16 कला संपन्न हैं।
यहाँ तक कि भगवान राम भी केवल 14 कला पूर्ण थे जब वे पृथ्वी पर आए थे क्योंकि श्री राम ने दो कलाओं को छिपाने का फैसला किया था क्योंकि रावण को एक वरदान मिला था जिसमें उनसे वादा किया गया था कि कोई भी भगवान उन्हें नहीं मारेगा इसलिए राम ने जानबूझकर अपने 2 कलाओं को छुपाया और एक साधारण मनुष्य की तरह रहते थे। मनुष्य इस वरदान को पूरा करने के लिए कि रावण को एक व्यक्ति द्वारा मारा जाएगा।
वो 16 कलाएँ जो श्रीकृष्ण ने धरती पर आने पर की थीं:-
- दया - करुणा - वे प्रत्येक प्राणी के प्रति दयालु थे। हम सभी के प्रति दया और प्रेम दिखाकर भी इसे अपने जीवन में लागू कर सकते हैं।
- धैर्य - बड़ी से बड़ी कठिनाई के समय में भी कृष्ण धैर्यवान थे। इस कला की आज की दुनिया में सबसे अधिक आवश्यकता है।
- क्षमा - उसने उस शिकारी को भी क्षमा कर दिया जो उसके पृथ्वी से विदा होने का कारण बना। लोगों को क्षमा करने की कला सीखनी चाहिए।
- न्याय - कृष्ण ने हमेशा बदला लेने के बदले न्याय पाने की बात कही। उन्होंने न्याय के लिए लड़ाई लड़ी, बदला लेने के लिए नहीं। हमें उनसे यह उत्कृष्ट गुण सीखना चाहिए।
- निष्पक्षता - कृष्ण इतने निष्पक्ष थे कि जब दुर्योधन ने कृष्ण से सहायता माँगी तो उन्होंने अर्जुन के सबसे अच्छे दोस्त होने के बावजूद नारायणी (सेना) सेना देकर उनकी सहायता भी की।
- निरस्कता - वैराग्य - चाहे दुर्वासा मुनि से श्राप प्राप्त करना हो, या माता रुक्मिणी से 12 वर्ष तक अलग रहना हो या उनके प्रिय पुत्र का अपहरण या उनके कुल का अंत हो, भगवान कृष्ण हमेशा दुःख और आनंद से अलग रहते हैं।
- तपस्या - ध्यान और आध्यात्मिक शक्तियाँ - कृष्ण को योगेश्वर कहा जाता है। उन्होंने तपस्या की और तपस्या की।
- अपरिचित्त - अजेयता - कृष्ण ने हमेशा शांति और साहस के साथ कठिनाइयों का सामना किया।
- दानशील - दुनिया और प्रकृति में सभी धन के दाता - भगवान कृष्ण ने मुट्ठी भर चावल के बदले में तीन लोकों को सुदामा को दिया।
- सौंदर्यमय - सौंदर्य अवतार - कृष्ण वास्तविक सौंदर्य अवतार हैं, चरित्र के अनुसार भी वे सुंदर हैं लेकिन एक सामान्य इंसान जीवन के वास्तविक आनंद को प्राप्त करने के लिए चरित्र की सुंदरता को आत्मसात कर सकता है।
- नृत्यज्ञ - सर्वश्रेष्ठ नर्तक - कृष्ण ने कालिया नाग (साँप) के फन पर नृत्य किया। जब कोई ऐसी नकारात्मक परिस्थिति में नृत्य कर सकता है, तो वह जीवन के हर पल का आनंद ले सकता है। नृत्य शरीर से नहीं आता है, यह आत्मा की खुशी है।
- संगीतज्ञ - सर्वश्रेष्ठ गायक - उनकी बांसुरी ने न केवल मनुष्यों को बल्कि पूरी प्रकृति को भी आकर्षित किया है।
- ईमानदारी की प्रतिमूर्ति -भगवान कृष्ण हमेशा ईमानदार रहे।
- सत्यवादी - सत्य ही - कृष्ण स्वयं सत्य के अवतार हैं, लेकिन हमें वही बनने से रोकते हैं।
- सर्वगणता - कविता, नाटक, चित्रकला आदि सभी कलाओं के पूर्ण स्वामी - कृष्ण सभी कलाओं के स्वामी हैं लेकिन हम जीवन के किसी भी चरण में इन कला रूपों के छात्र हो सकते हैं।
- सबका नियंत्रक - कृष्ण सर्वनियंत हैं, लेकिन हम सीख कर स्वयंनियंता (स्वयं का नियंत्रक) बनना शुरू कर सकते हैं।
जब आप ऊपर किसी एक कला को लेकर साथ चलते हो और पूरी चेनतागत अवस्था से उसे करते है, धीरे धीरे बाकी कलाओं मे भी आप निपुण होने लगते है इसमें से तपस्या सबसे ऊपर है। धीरे धीरे चित के अन्दर की 16 कलाएं आप महसूस करने लगते है जो देव तुल्य है।
- बुद्धि का निश्चयात्मक हो जाना,
- अनेक जन्मों की सुधि आने लगती है।
- चित्रवृत्ति नष्ट हो जाती है।
- अहंकार नष्ट हो जाता है।
- संकल्प विकल्प समाप्त हो जाते हैं एवं स्वयं के स्वरूप का बोध होने लगता है।
- वायु तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। स्पर्श मात्र से रोग मुक्त कर देता है।
- अग्रि तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। दृष्टिमात्र से कल्याण करने की शक्ति आ जाती है।
- जल तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। जल स्थान दे देता है। नदी, समुद्र आदि कोई बाधा नहीं रहती।
- पृथ्वी तत्व में पूर्ण नियंत्रण हो जाता है। हर समय देह से सुगंध आने लगती है। नींद, भूख-प्यास नहीं लगती।
- जन्म-मृत्यु स्थिति अपने अधीन हो जाती है।
- समस्त भूतों से एकरूपता हो जाती है और सब पर नियंत्रण हो जाता है। जड़ चेतन इच्छानुसार कार्य करने लगते हैं।
- समय पर नियंत्रण हो जाता है। देह वृद्धि रुक जाती है अथवा अपनी इच्छा से होती है।
- सर्वव्यापी हो जाता है। एक साथ अनेक रूपों में प्रकट हो सकता है। पूर्णता अनुभव करता है। लोक कल्याण के लिए संकल्प धारण कर सकता है।
- कारण का भी कारण हो जाता है। यह अव्यक्त अवस्था है।
- उत्तरायण कला- अपनी इच्छानुसार समस्त दिव्यता के साथ अवतार रूप में जन्म लेता है। जैसे-राम, कृष्ण। यहाँ उत्तरायण के प्रकाश की तरह उसकी दिव्यता फैलती है। 16वीं कला पहले और 15वीं को बाद में स्थान दिया है। इससे निर्गुण, सगुण, स्थिति भी सुस्पष्ट हो जाती है।
- कलायुक्त पुरुष में व्यक्त-अव्यक्त की सभी कलाएं होती हैं, यही दिव्यता है।
मोना ने महादेव के लिए जितना प्रेम उड़ेला, उतने ही उसके महादेव जीवित होते चले गए । अब उसका यह नाता भक्त का और मूर्ति का न रहा; भक्त और भगवान का हो गया। उसने तो सिर्फ एक कला जानी, वो है प्रभु से प्रेम।