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भूमिका
अपने अनेक उतार-चढ़ाव भरे जीवन की पाठशाला में मैंने जो कुछ समझने, परखने और सीखने का प्रयास किया उसमें कुछ ऐसे भी विषय आए जो जीवन को कई स्थायी संदेश दे गए।
इस पुस्तक के लिए मैंने उसी पाठशाला की लाइब्रेरी से एक ऐसे विषय को चुना है जो आज नहीं तो कल, हर व्यक्ति को कहीं न कहीं स्पर्श करने वाला है। हम चाहे जिस देश में रहते हों, जो भी भाषा बोलते हों, या जो भी हमारी सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक, सांस्कृतिक इत्यादि मान्यताएं एवं विचार हों - कम से कम एक बात में हम सब में समानता है कि हर व्यक्ति जीवन में आरोग्य और आनन्द की कामना करता है। परन्तु यह भी सत्य है कि एक आम व्यक्ति स्वास्थ्य के विषय को बहुत गम्भीरता से नहीं लेता, जब तक कि उसका सामना रोगों से नहीं होता। सम्पन्नता का मूल्य वही व्यक्ति जानता है जिसने विपन्नता की त्रासदी को झेला है। सामान्यतया आरोग्य के आनन्द का वास्तविक मूल्य भी वही व्यक्ति अधिक समग्रता से समझ पाता है जो जीवन में शारीरिक व मानसिक व्याधि के लम्बे दौर से गुजर चुका हो।
मेरा जीवन भी एक ऐसे परीक्षण और प्रयोग की कहानी है जिसमें लम्बे समय तक अनेक व्याधियों से ग्रसित काया को लगभग असाध्य अवस्था से बाहर निकालकर आरोग्य की स्थिति में लाना, आज किसी चमत्कारिक घटना से कम नहीं लगता है और यह सब बिना किसी दवा या औषधि की सहायता के। असम्भव से सम्भव की यात्रा का पूरा श्रेय जाता है, प्राणायाम क्रिया को, जिसे मेरा सम्पूर्ण अस्तित्व समर्पित है। प्राणायाम के नियमित अभ्यास से मेरे जीवन में जो घटित हुआ, उसने मेरे आत्मविश्वास को एक नया आधार दिया। इस प्राणदायनी विधा ने, यदि मुझे संकल्प की प्रेरणा दी, तो साधना का सामर्थ्य और स्वास्थ्य लाभ की सिद्धि भी। यह पुस्तक मेरे इसी अनुसंधान और अनुभव का निचोड़ है।
प्राणायाम के सतत् अभ्यास से मन में यह भाव आया कि हम ऐसा जीवन जिएं कि अपने विचार और अपने आचरण का स्मरण होते ही, जीवन आत्मविश्वास से भर जाए, अन्दर एक प्रेरणा का भाव जागृत हो, अपने प्रति श्रद्धा का भाव हो, न की दया का।
मेरा प्रबल विश्वास है कि यदि इस पुस्तक में दिए गए सुझावों का निष्ठा से अनुपालन किया जाए, तो सम्भव है जीवन भर स्वस्थ बने रहने के लिए किसी औषधि के अवलम्बन की आवश्यकता ही न पड़े।
सन् 2000 के अंत तक अनेक कारणों से मेरा स्वास्थ्य बिगड़ने लगा। घुटनों, पीठ और गर्दन में निरन्तर दर्द रहने लगा और जैसे-जैसे इलाज होता गया, मर्ज भी बढ़ता गया। यह दर्द बढ़ते-बढ़ते कंधों और सिर के पिछले भाग में पहुँच गया। तरह-तरह की दवाएं मेरे दैनिक आहार का एक आवश्यक अंग बन गए और मेरा शरीर इन औषधियों की प्रयोगशाला। धीरे-धीरे ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई कि हर सात-आठ घंटे पर दर्द की गोलियाँ आवश्यक हो गईं । गोलियों का प्रभाव कम होते ही असहनीय पीड़ा शुरू हो जाती। इस अवस्था को याद कर आज भी मन में सिहरन पैदा हो जाती है। तब निरन्तर यह महसूस होता जैसे मेरे बालों को पकड़कर किसी ने मेरे पूरे शरीर को हवा में लटका रखा है। सड़क पर गाड़ी से चलने के दौरान यदि गड्ढों या स्पीड ब्रेकर्स का हल्का सा भी झटका लगता, तो यह महसूस होता मानो गर्दन सिर से टूटकर अलग गिर जाएगी। उन दिनों मैं मुम्बई में कार्यरत था। वहाँ के बॉम्बे हॉस्पिटल, हिंदूजा हॉस्पिटल और बाद में दिल्ली के सफदरजंग, राम मनोहर लोहिया तथा भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान आदि के चक्कर काटते-काटते मन में हताशा का भाव पैदा होने लगा। सन् 2003 आते-आते चलना तो दूर, उठ कर बैठना भी मुश्किल होने लगा। बैठने या खड़े होने की स्थिति में दोनों हथेलियों से गालों एवं ठोड़ी (Chin) को पकड़ना एवं हथेलियों का सहारा देकर, सिर को नीचे की तरफ लटकने की पीड़ा से बचाना पड़ता था। चारपाई पर लेटे हुए यदि करवट बदलनी होती तो दोनों हाथों से अपने सिर को पकड़ना अनिवार्य हो जाता और इस स्थिति में भी करवट बदलने में करीब 1-2 मिनट लगता। अगर चारपाई पर बैठने का प्रयास करता तो कभी-कभी भूकम्प के झटके जैसा महसूस होता और फिर तुरंत लेटने के लिए बाध्य होना पड़ता। लम्बे-लम्बे अवकाश लेकर दिन-रात चारपाई पर ही पड़े रहना, खाना-पीना, यहाँ तक कि नित्य क्रिया, सब कुछ चारपाई पर ही पड़े-पड़े। इस दौरान उच्च रक्तचाप, थायरायड आदि अन्य समस्याओं ने भी आ घेरा। तरह-तरह के अस्पतालों और तरह-तरह की चिकित्सा पद्धतियों जैसे एलोपैथी, होम्योपैथी, नेचुरोपैथी, आयुर्वेद, हकीमी, एक्यूप्रेशर, ओस्टियोपैथी, क्रोमोपैथी, सुजोक, चुंबकीय चिकित्सा इत्यादि ने मेरे शरीर एवं मन पर अनेक अनुसंधान कर डाले।
उन्हीं दिनों कुछ समय बाद बड़ौदा (गुजरात) में स्वामी रामदेव जी का शिविर लगा, जहाँ मेरे बहनोई श्री कर्ण सिंह उस समय आयकर आयुक्त पद पर नियुक्त थे। उन्होंने मुझसे स्वामी जी से मिलने हेतु अनुरोध किया। मेरी स्थिति ऐसी थी कि, मरता क्या न करता। अनेक कष्ट सहकर मैं बड़ौदा पहुँचा। स्वामी जी के साथ 15 मिनट की मुलाकात ने मेरे आगे के जीवन की पृष्ठभूमि तैयार कर दी। बस यहीं से मेरे जीवन में एक नए युग का शुभारम्भ हुआ। उन्होंने मुझे देखा, परखा, परीक्षण किया और कुछ सलाह दी। कुछ आसन व कुछ प्राणायाम बताए। मैनें कहा कि मेरे लिए तो बैठना ही मुश्किल है, तो आसन प्राणायाम कैसे होगा ? उन्होंने कहा, "नहीं कर सकते तो भी प्रयास करो, बैठ कर नहीं कर सकते तो लेटे-लेटे करो, परन्तु करो अवश्य। लेकिन प्रयास पूरी इमानदारी और समर्पण भाव से हो।" उन्होंने पुनः मुझसे कहा, "इस ब्रह्मांड में कोई ऐसी शक्ति नहीं है जो मनुष्य के भाग्य के बारे में एक तरफा निर्णय सुना दे और जिंदगी जीने के लिए उसे दवाओं पर आश्रित होने को विवश कर दे।" उनके शब्द मेरे मन में संकल्प बनकर गूँज उठे जिसने मेरे आत्मबल में नया प्राण फूँक दिया। उसी क्षण मैनें संकल्प लिया कि पुरुषार्थ में पीछे नहीं हटूंगा, परिणाम चाहे जो भी हो। मैंने शुरुआत की लेटे-लेटे कपालभाति और अनुलोम-विलोम प्राणायाम से। शुरू किया 5 कपालभाति और 5 अनुलोम-विलोम से और जैसे-जैसे क्षमता का विस्तार होता गया, मैं संख्या बढ़ाता गया। उसके बाद मेरे जीवन में जो घटित हुआ वह किसी चमत्कार से कम नहीं था। इस तरह लेटे-लेटे प्राणायाम करने की प्रक्रिया चलती रही और मैं इसे दिन में अनेक बार करने लगा। लगभग एक महीना बीता होगा, एक दिन मैंने ध्यान दिया तो देखा कि मैं बैठकर प्राणायाम कर रहा हूँ और मैंने अपने सिर को नीचे लटकने से बचाने के लिए हथेलियों से कोई सहारा भी नहीं ले रखा है। अपनी स्थिति को देखकर मुझे यकायक विश्वास ही नहीं हुआ कि यह कल्पना थी या वास्तविकता। फिर मैंने धीरे से खड़े होने का प्रयास किया और बगल के कमरे के टॉयलेट में शीशे के आगे खड़ा होकर स्वयं को देखकर संतुष्ट हो गया कि यह मैं ही हूँ। उसके बाद मैं इतना भावुक हो गया, इतना भावुक हो गया कि वहीं जमीन पर बैठ गया। धारा प्रवाह अश्रुपात से मेरी कमीज गीली हो गई। उसके बाद जब मैं खड़ा हुआ तो मेरा मस्तक नीचे झुका - इस बार किसी मजबूरी में नहीं, बल्कि प्राणायाम विद्या के प्रति कृतज्ञता को व्यक्त करने के लिए। समर्पित प्राणायाम साधना का प्रभाव यह हुआ कि अगले तीन-चार महीनों में मेरे जीवन की दशा और दिशा ही बदल गई। शारीरिक व्याधियों के साथ-साथ सभी दवाओं से भी मुक्ति मिल गई।
आज मैं यही कहूँगा कि घनघोर अंधकार में भी मैंने अपने विश्वास और प्रयास का दीपक जलाए रखा और अनेक आँधी-तूफान के उपरान्त भी उसकी लौ को बुझने नहीं दिया।
यह पुस्तक प्राणायाम के प्रति कृतज्ञता के मेरे इसी भाव की अभिव्यक्ति है। इसका प्रत्येक पृष्ठ मेरे अनुसंधान, आत्म निरीक्षण एवं अनुभव का निचोड़ है।