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जब मेरा जन्म हुआ तब न मोबाइल का पदार्पण हुआ था, न दूरदर्शन का। यानी आपसी सम्बन्धों के बीच कोई भी किसी प्रकार की दीवार जैसी चीज नहीं थी। सब भाई बहिन माता पिता हर पल एक दूसरे से जुड़े रहते थे। सबके पास सबके लिए पूरा समय होता था। छोटे बच्चे कुछ ही दूरी पर स्थित नगर पालिका के प्राइमरी स्कूल में तख्ती बस्ता लेकर पढ़ने जाते थे और घर लौटनें पर माँ बड़े प्यार से उन्हें खाना खिलाते हुए आज स्कूल में क्या क्या हुआ प्रश्न पर प्रश्न करके हर बात पूछा करती थीं। बच्चे भी बड़े तन्मय होकर खुश खुश एक एक बात उनसे साझा करते थे। रात को तो जब तक माँ के पास इधर उधर लेट कर उनसे एक दो ज्ञान वर्द्धक कहानी न सुन लें तब तक उन्हें नींद नहीं आती थी।
पर अब तो सब भाई बहिन माँ कभी टी.वी. पर सीरियल देख रहे होते हैं तो कभी मोबाइल पर किसी से घंटों बात करने में व्यस्त दिखते हैं। अब छोटे बच्चों को अच्छे संस्कार और जीवन के आदर्श किस से और कहाँ से सीखने को मिलें। पहले अपने प्राचीन महापुरुषों की कहानियाँ तथा समय समय पर विद्यालयों में उन पर प्रस्तुत किए जाने वाले नाटक ही तो बहुत से बच्चों के भावी जीवन की आधार शिला रखा करते थे। पर आजकल तो बच्चे खेलों की सुविधा के अभाव में, या ये कहिए इंगलिश स्कूलों के गृह कार्य के बोझ के कारण खाली समय में दूर दर्शन पर कार्टून फिल्म देख रहे हैं। पर ये धारावाहिक नैतिक मूल्यों को जानने समझने के प्रेरणा स्रोत नहीं हैं। एक सम्मान पूर्वक आदर्श जीवन जीने के मार्ग दर्शक तो बिलकुल भी नहीं।
मुझे अच्छी तरह याद है साठ से अस्सी के अंतराल में बच्चों, बड़ों के लिए न जाने कितनी पत्रिकायें, चित्र कथा घर-घर पढ़ने के लिए आया करती थीं। बच्चे बड़े उन्हें केवल पढ़ते ही नहीं थे, आपस में उन पर चर्चा भी करते थे। पर अब तो ये सब बातें जैसे भूली बिसरी और बहुत पुराने समय के जैसी लगती हैं।
यदि गम्भीरता से सोचें तो कहानियाँ समय का सदउपयोग तो हैं ही, इनसे हमें बहुत कुछ नया जानने और सीखने को भी मिलता है। भाषा परिष्कृत होती है। बहुत से नये शब्द अपने ज्ञान कोष में संगृहीत होते हैं और सबसे बड़ी बात सोचने के दृष्टिकोण में भी कुछ न कुछ परिवर्तन अवश्य आता है। मैं देख रहा हूँ कि मोबाइल के आ जाने के बाद जब से पत्र लेखन कम हुआ है तब से अधिकांश लोगों की भाषा काफी शिथिल हो गई है। उनके पास अपनी बात कहने के लिए अब अच्छे सुन्दर शब्द ही नहीं हैं। पहले जब पत्र लिखते थे तो कैसे एक एक शब्द खोज कर भावनाओं के गुलदस्ते में सजाने का प्रयास करते थे। अपनी हर पंक्ति में अपनेपन की मधुरता और सम्बन्धों की गहनता अभिव्यक्त करते हुए दृष्टि गोचर होते थे। पर अब तो मोबाइल ने जैसे सब कुछ समाप्त कर दिया। यह एक सभ्य समाज के लिए बहुत अच्छा संकेत नहीं माना जा सकता। भाषा तो सुसंस्कृत समाज की आत्मा होती है। किसी के मानसिक विकास व आचार विचार जानने की प्रथम सीढ़ी कहलाती है। व्यवहार, चारित्रिक विशेषताएँ आदि तो उसके बाद की बातें हैं।
इस संग्रह में मेरी १० कहानियाँ हैं। सभी समाज से जुड़ी हैं और प्राय; घरों में देखी जाने वाली किसी न किसी ऐसी छोटी बड़ी समस्या पर आधारित हैं जो एक पल घर में सुख और शांति नहीं रहने देती। जो अधिकतर किसी जिद या बड़ी लापरवाही के कारण होती हैं। जो किसी के प्रति अधिक लगाव या गलत धारणा के कारण उत्पन्न होती हैं।
मैं आपको अपनी एक कहानी– ‘एक नैतिक भूल’ के विषय में एक अत्यंत रोचक बात बताऊँ। उस दिन मैंने यह कहानी अपनी योजना के अनुसार लगभग समाप्त कर दी थी और रात को यह सोच कर सोया था कि कल इसे हर तरह अंतिम रूप देकर समाप्त कर दूँगा। पर जब सोया तो सपने में देखता हूँ कि कहानी की प्रमुख स्त्री पात्र कनिका अपनी माँ के घर की देहरी पर दोनोँ घुटनों पर सर रखे बड़ी उदास सी बैठी है। तभी पड़ौस में रहने वाली एक अत्यंत वृद्ध महिला वहाँ आती हैं और उसे देख कर आश्चर्य से उससे कहती हैं– “अरे तू ससुराल से कब आई और यह क्या हाल कर लिया है तूने अपना।”कनिका तुरन्त खड़े होकर उनसे जोर से चिपट जाती है और रोते हुए हाथ से मेरी ओर इशारा करके कहती है– “दादी, इन्होने की है मेरी यह हालत। ये मुझे खुश नहीं देखना चाहते। मैं शायद इन्हें रोते हुए ही अच्छी लगती हूँ। दादी मैं सच कह रही हूँ मैंने कभी कोई गलत काम नहीं किया। मैं तो एक अनाथ लड़के की जिन्दगी सुधारना चाह रही थी। अब वह बाद में गलत हो जाए तो इसमें मेरा क्या दोष है।”
कनिका की बात सुन कर मैं हतप्रभ रह गया। मेरी तुरन्त आँख खुल गईं । कनिका का एक एक शब्द कानों में गूँज रहा था। मैं फिर एक पल नहीं सो पाया। बस निरन्तर यही सोचता रहा कि क्या वास्तव में कनिका की इस स्थिति के लिए मैं ही उत्तरदायी हूँ।
अगले दिन कहानी पूर्ण नहीं हुई। और फिर जब तीन चार दिन बाद वह पूर्ण हुई तो उसका सारा स्वरुप ही बदल गया था। अब वह दुखान्त की जगह सुखान्त हो गई थी।
अंत में मैं अपने सभी स्नेहिल पाठकों से एक आग्रह अवश्य करना चाहूँगा कि यदि आपने अभी तक किसी कारण वश इस पुस्तक की भूमिका नहीं पढ़ी है तो कृपया कभी समय निकाल कर उसे पढ़ने का अवश्य प्रयास करे। उसमें मेरी तीनों प्रकाशित पुस्तकों का बहुत सूक्ष्म और सारगर्भित विश्लेषण है। और सच में यदि आप मुझसे पूछें तो श्री अयंगर जी के शब्द शब्द में मेरी काव्य रचनाओं का मर्म व कहानियों की मूल भावना अन्तर निहित है।