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प्रताप के मन में तो लड्डू फूट रहे हैं। नेता छाप मटियल सा कुर्ता एवं पायजामा पहने हुए, कंधे पर अपने बाप का पुश्तैनी खादी अंगौछा डाले हुए, वह झट से हार को अपने धूमिल गुलाबी सदरी के बाएं जेब में डालता है, क्योंकि दूसरे जेब में छेद है और हाथ भी जेब में डाले कि कहीं हार हाथ से छूट न जाए, हाथ से हार को जोर से जकड़े हुए, सपाक-सपाक कदम आगे बढ़ाये जा रहा। पैर में अधमरा सा चमड़े का सैंडल, जो कई जगह से सिला हुआ है। उसकी आँखें तो इन्ही ख्यालों में खोई हुई हैं, ओझल पड़ी हुई हैं, पैर तो यों जैसे उन्हें मंजिल का बखूबी पता हो, सटपट-सटपट रास्ते नापे जा रहे हैं। मन उत्तरी ध्रुव का उड़ान भर रहा है, वहीं उसका शरीर दक्षिण ध्रुव का सैर सपाटा कर रहा है। इन्ही खयाली पुलाव को पकाते हुए, बस बाजार की तरफ बढ़ता और बुदबुदाता जा रहा है, “आज पिऊँगा, जम के पिऊँगा और जी भर के पिऊँगा, साली जिन्दगी ने तो फाड़ रखी है, पीने से ही शायद जीने का स्वाद मिल जाए, वरना इसकी तो वाट लगी हुई है, सुबह से शाम तक बस यही, कि घर में ये नही है, वो नही है, ऊपर से कर्जदारों का जमघट लगा रहता है, अब तो हालत ये हैं कि कोई एक आना कर्ज भी देने को राजी नही होता, हिम्मत भी तो नही होती माँगने की, होगी भी तो कैसे, पहले से ही इतना बोझ लदा है”।