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नर से ऊँची नार है, नारी से संस्कार।
जननी बनकर खुद बनी, इस जग का आधार।।
नारी विधाता की अतुल्य, अद्भुत, अद्वितीय, अप्रतिम और आंतरिक शक्तियों से लबरेज वह सुन्दरतम रचना है, जिसके आगे स्वयं विधाता भी नतमस्तक होता है। इसके अन्तस् में विद्मान सहनशील, ओजस्विता, वात्सल्य, ममता, त्याग, समर्पण, सहनशीलता, भावनात्मकता प्रबलता और विशुद्ध चैतन्य की उपस्थिति इसके आंतरिक अवं बाह्य स्वरुप में चार चाँद लगा देते है।