शिव स्वरुप-शिव रहस्य by हर्षविंद्र सिंह पठानिया

शिव स्वरुप-शिव रहस्य

हर्षविंद्र सिंह पठानिया

शिव अर्थात कल्याण, एक ऐसा नाम जो भक्तों के मन-मंदिर के भीतर उस सत्य ज्योति के रूप में सदैव प्रकाशित रहता है जिससे उनके जीवन में आनन्दरूपी प्रकाश सदैव बना रहता है। शिव आनंद का ही प्रर्याय है। उनके आसपास बने रहने मात्रा से ही आप स्वयं को उस दिव्यता से स्पर्श किया हुआ पायेंगे। शिव एक ऐसा भाव है को आपके मन में उठने वाले सभी प्रकार के द्वेषों-विषादों को इस प्रकार हर लेता है जिस प्रकार सूर्य रात्रि के प्रकाश को समाप्त कर देता है।
प्रस्तुत पुस्तक में ही गई शिव नाम महिमा की चर्चा उस परम प्रकाश-पुंज को दीपक दिखने की समान ही है परन्तु आप मानव मन की कभी न समाप्त होने वाली तृष्णा को तो जानते ही हैं कि जिससे वह प्रेम करता हैं उसके बारे में सोचना, बोलना और सुनना ही उसे भाता हैं। लेखक का शिव के प्रति ऐसा भी भाव इस पुस्तक को लिखने के आधार बना।
शिव नाम का अर्थ कल्याण है पर उस कल्याण कि प्राप्ति के लिए स्वयं को शुद्ध करना अति आवश्यक है। शिव और विष एक दूसरे के प्रर्याय हैं। यदि शिव के योग्य होना हैं तो विष को धारण करने की कला एक प्रकार की सहजता है। नाशवान जगत में अविनाशी का ध्यान यदि हमारा अभ्यास है तो निश्चय ही हम कल्याण के अधिकारी है, पर यदि मन में क्रोध, चिंता आदि व्याधियाँ विराजमान है, तो कल्याण और आनंद कैसे मिल सकता है। शिव का नाम लेना ही इति नहीं हो सकता है। उस नाम का सार जानना भी आवश्यक है। शिव मन में उत्पन्न वह अक्षय आनंद ही अनुभूति है जिसको केवल सहज होकर, रिक्त होकर और शुद्ध होकर ही अनुभव किया जा सकता है। शिव का वंदन सभी प्रकार के कषटो का निराकरण है। मानव जीवन का परम उद्देश्य उस परम आनंद ही प्राप्ति ही है, पर आनंद की प्राप्ति से पहले स्वयं को तपाना भी तो होगा। जिस प्रकार सोना तप कर ही शुद्धता को पाता है, साधक तपकर ही सिद्धि को पाता है, वीर रण-ज्वाला में तप कर ही विजय को पाता है, संतान सुख की प्राप्ति के लिए स्त्री को प्रसव पीड़ा से गुजरना ही पड़ता है, उसी प्रकार आनंद की प्राप्ति से गुजरना ही पड़ता है, उसी प्रकार आनंद की प्राप्ति के लिए सहज होना ही पड़ेगा। सहज अर्थात विकार रहित, काम रहित, मोक्ष की इच्छा से भी रहित। यह इतना सरल कहाँ है। जो आँखें जगत में रामी हुई है, जो जिम्हा रसपान में लगी हुई है, जो कान लोक-निंदा में जुए हुए हैं, वे सहज कहाँ हो पायेंगे। इसके लिए निरंतर अभ्यास, बारम्बार मनन और चिंतन करना ही होगा। तभी शिव-साक्षात्कार होगा।
महाकाल के रूप में अपने ईष्ट की प्राप्ति, शिव रूप में उस परम आनंद भाव की प्राप्ति, शंकर रूप में उस दिव्यता की प्राप्ति और भोलेनाथ रूप में सार्वभौमिकता की प्राप्ति ही लेखक के जीवन का ध्येय है। शिव के बारे में अनंत कोटि काव्य कहे, सुने और लिखे जा चुके है और निक्षय ही हर काव्य, हर लेखन का एक ही भाव रहा होगा-वह है शिव के प्रति प्रेम भाव। शिव प्रेम के अथाह सागर हैं। आप यदि पूरा जीवन भी अनंत सागर से अपने लिए प्रेम संजोते रहेंगे तो भी वह प्रेम-रास जस का तस बना रहेगा। शिव को बारम्बार प्रणाम कीजिये, श्वास-श्वास प्रणव का उद्घोष कीजिये, परमार्थ को अपने जीवन का नियम बनाइये, आनंद को अपने जीवन का उद्देश्य-रूप धारण कीजिये। शिव संकल्पं अस्तु अर्थात सबका कल्याण ही मेरा कल्याण है। ऐसा भाव यदि जीवन में धारण कर लेंगे तो प्रति क्षण शिव-दर्शन साक्षात् होंगे।

सादर प्रेम भाव रहित।
शिव चरण कमलदल दास

हर्षविंद्र सिंह पठानिया